घर से निकला तो कोई घर न रहा
मैं इधर का रहा न, उधर का रहा ।
यों तो कोई ग़म नही है जि़न्दगी में
सीने में जो दिल है दुखता है,बेइन्तहा कभी कभी ।
खूँ में आग का लपलपाता हुआ जंगल है ,
आँखों का पानी भी कम है, इसे बुझाने में ।
वो जो राह भूला फिर न पलट के आया कभी
मेरे तमाम ख़त बेपता खो गये।
स्याह साया दरख्तों पर उतर आया है ,
रोशनी का कतरा भी कहीं नहीं ।