पृथ्वीराज रासो में चालुक्यों की उत्पत्ति महर्षि वशिष्ठ द्वारा किये गये यज्ञ की अग्निकुंड से मानी गयी है ।चालुक्य वंश के अभिलेखों में उन्हें चन्द्र वंशीय क्षत्रिय बताया गया है ।
चालुक्य वंश की कई शाखाओं में वातापि(बादामी) ,वेंगी ,लाट और कल्याणी आदि शाखाएँ है परन्तु चालुक्यो के गोत्र मे भिन्नता होने के कारण उन्हें एक ही वंश का नहीं माना जा सकता ।
कैरा ताम्र पत्र के अनुसार वातापि का प्रथम नरेश जयसिंह था अपनी प्रतिभा और साहसिक अभियानों के कारण वह आन्ध्र प्रदेश के बीजापुर और आस पास के क्षेत्रों का सामन्त बना ।
जयसिंह के पश्चात उसके पुत्र रणराज ने शासन संभाला उसे पराक्रमी शासक कहा गया है ।
रणराज के बाद उसका पुत्र पुलकेशिन प्रथम राजा बना उसने वातापि (बादामी)के निकट पहाड़ पर क़िलेबन्दी करके एक सुदृढ़ दुर्ग बनवाया और स्वतंत्र राज्यवंश की स्थापना की ।
पुलकेशिन प्रथम रामायण ,महाभारत तथा पुराणों का ज्ञाता होने के साथ सुयोग्य राजनीतिज्ञ भी था ।
पुलकेशिन प्रथम के बाद उसका पुत्र कीर्ति वरमन चालुक्य वंश का शासक बना वह योग्य पिता की योग्य सन्तान था ।उसने बनवासी के कदम्ब कोंकण के मौर्य तथा नल राजाओं के विरूद्ध लड़ाइयों मे अपने राज्य का विस्तार किया ।कोंकण विजय के फलस्वरूप गोवा का प्रमुख बन्दरगाह जो उस समय रेवती द्वीप के नाम से प्रसिद्ध था अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया ,अपने विजयी अभियानों से प्राप्त होने वाले धन से कीर्ति वरमन ने अनेक कलात्मक निर्माण करवाये ।
५९८ई० में कीर्ति वरमन की मृत्यु के समय उसके पुत्र शासन करने की दृष्टि से काफ़ी छोटे थे ।अत: राजसिंहासन पर कीर्ति वरमन का अनुज मंगलेश आसीन हुआ ,वह अपने पिता और अग्रज की भाँति महा पराक्रमी शासक था ,उसने कलचुरित राजा बुद्धि राज को पराजित कर खानदेश जीत लिया और आसपास के अन्य प्रदेश जीत कर अपने राज्य में मिला लिये ।